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सबसे पहले अराजकता से पहले हमें राज की अवधरणा कि बात करनी होगी | हम मानव विकास के क्रम में अपना अपना भोजन और रहने के लिए एक दूसरे को मारते और मिटाते खुद को बचाते, धीरे धीरे एक सभ्यता में बदले | राज क्या है, यह है एक ऐसी सम्लित व्यवस्था जिसमें जनता और समाज को तंत्र दिया जाता है कि सब एक दूसरे के साथ रहते हुए यह महसूस करें कि सबके अधिकार एक से हैं |
ऐसा जमीन का बटवारा हो कि मालिक कायदे कानून से अपने भवन में आराम से रहे| | यहाँ इस सरंचना को बना रहना है तो इसकी रखवाली राज करता है | राज का काम है कि लोग महफूज़ रहें और इस सब की व्यवस्था के स्तम्भ है न्याय व् विधायिका |
आज हम, एक ऐसे तंत्र का न चाहते भी, हिस्सा बने हुए हैं जहाँ ,आर टी ओ के कार्यालय में बिना रिश्वत दिए न तो ड्राइविंग लाइसेंसे मिलता है न कोई गाड़ी का नंबर | सड़क पर ऑटो वाला रोज़ पुलिस कि जेब गर्म करता है | मकान का नक्शा पास करना हो तो रिश्वत दो | जन्म हो या मृत्यु प्रमाण पत्र बिना सुविधा शुल्क के नहीं मिलेगा | वैश्य वृत्ति और ड्रग्स का कारोबार खुद पुलिस करवायगी | ऐसे चिन्हित इलाके देश की राजधानी में हों जहां विदेशी लड़कियां तस्करी कर के देह व्यापार पुलिस के संरक्षण हो रहा हो | तो राज कहाँ है | यदि राज नहीं है तो यह अराजकता है |
बदलाव को हमेशा ही अराजकता कहा जायेगा | यह शब्द शाशकों को तब याद आता जब उनको गद्दी को उतारने जनता उठ खड़ी होती है |
सड़क पर सोता दिल्ली का मुखिया अपने आप में कोई बड़ी चीज़ नहीं है | पर जनता जिस बदलाव के लिए उठ खड़ी हुई उसका जिन्दा बने रहना जरुरी है | कोई भी बदलाव अपने में कष्टकारी होता है | अपनी स्वाधीनता को पुनः छद्म लोकतान्त्रिक व्यवस्था से निकालने की जिम्मेवारी खुद आम आदमी को निकालनी होंगी | शब्दों के जाल में फंसे इस लोकतंत्र को बचाना ही होगा | लोकतंत्र में राजनीती के जरिये करोङो का सामंतवाद स्थापित करने कि व्यवस्था बदलनी होगी |
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