Reality and Mirage of Life
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रास्ते में फेंकी बीड़ी पाई ; पहली बार ओंठों से लगाई ।
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शुरू हुआ झूठी बीड़ी से ; चढने लगा नशा सीढ़ी से ।
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हुआ प्रामोसन पाई “क्रैक”; करता रहा उसी से ऐश ।
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एक रोज तो गज़ब हो गया ; चिलम से मेरा मिलन हो गया ।
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ब्रेन का मेरे “लॉक” खुल गया ; जन्नत सा माहोल हो गया ।
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मारता रहा मैं कश पे कश ; आँखे टंग गई, खा गया गश ।
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अंदाज़ हो गया नशा नशीला ; बदन हो गया सारा ढीला ।
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अब हूँ बेबस , जेब है खाली ; नशा मिले तो खेलूं पाली ।
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जीवन का सब मजा खो गया ; नशा ही अपना खास हो गया ।
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को में यूँ न खोता ।
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नशा सत्य की खोज का होता ; गाँधी सा व्यक्तित्व निखरता ।
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“वल्व ” दमकता ।
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छोड़ो बीड़ी, चिलम, चटारी ; सेहत पर ये पड़ेगा भारी ।
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; इन्सान बनो , इंसानियत नशा करो तुम ।
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