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अरविन्द निकाल दे इस कीड़े को

Reality and Mirage of Life
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Kejariwal

तेरा वैभव अमर रहे माँ हम दिन चार रहे न रहें ….”
अरविन्द रैली से बोल कर गाड़ी में बैठते ही खाने को कुछ माँगा करता था ! मेरे मज़ाक उड़ने पर उस का कहना था कि शुगर के कारण जल्दी ही कुछ न खा सकूँ तो घबराहट होने लगती है ! आज पाँच दिन हो गए ! कल माँ ने उस के माथे पर हाथ फिराया तो मुझे उस की वो भूख याद आ गयी !

आज पुणे में एक साथ कई जगह कम ताकत के बम्बों का बिस्फोट हा गया | इसमें किसी भी बम में ऐसी कोई ताकत ही नहीं थी कि एक भी आदमी हता हत  हो सकता हो | हाँ इस बम में इतना असर जरुर था कि जंतर मंतर के अनशन का नामों निशा भी बुद्धू बक्से से गायब होगया | यह हथकंडा तो बहुत छोटा है हमारा पडोसी देश तो अपनी जनता का ध्यान जमीनी हकीक़त से हटाने के लिए सीमा पर गोलाबारी शुरू करवा देता था | शायद उन्ही तरकीबों से आन्दोलन दबाने का प्रयास अब हमारे भ्रष्ट नेता कर रहे हैं | जब मीडिया का सीधा काम पैसा कमाना ही हो तो सरकार के भ्रष्ट मंत्रिओं से ज्यादा पैसा कोन दे पायेगा | मीडिया कब किस चीज़ को कितना महत्व दे यह उस तमाशे पर ज्यादा निर्भर रहता है जो आम जनता का मनोरंजन कर पाए | मीडिया को पहले भी किसी मुद्दे से कोई लेना देना नहीं था पर अन्ना एक नए प्रकार मनोरंजन उस बार उन्हें दे पाए और पूरा मीडिया उनसे जा चिपका | इंसानी जज्बे में आजादी कि लड़ाई से गुज़रे इन सालों में धरती आसमान के अंतर जैसा आ गया है| उस समय गाँधी आत्मनिर्भरता और देशभक्ति का प्रवाह लोगों के मन में भर पाए || लोग अपने तात्कालिक लालचों को दर किनार कर अपनी छोटी सोचों से ऊपर आकर पहली बार देश के लिए सोच पाए |

पता नहीं कौनसा कीड़ा अरविन्द केजरीवाल के दिमाग को कटा करता है | अपनी इनकम टैक्स के ऊँचे ओहदे कें साथ अपने घर वालों कि वही सारी इच्छाएं पूरी करता, जैसा मेंरे जैसे सभी करते हैं | चाय पीते हुए रोज़ सुबह व्यवस्था को कोसता और फिर दिन भर उसी व्यवस्था का अंग बन जाता | ज्यादा टेंसन होता तो कुछ ध्यान लगा लेता रेलक्स हो जाता | क्यों नहीं उसी सिस्टम का हिस्सा बन गया जहाँ ऐशो आराम देश विदेश में रखा पैसा सब कुछ होता | एक नहीं कई सुविधजानक वाहन व् समुन्द्र कि तरफ मुहं करे विला होती| अपने पिता कि आँख का तारा व् पत्नी व् बच्चों को वह सब देने वाला जिसके वह अधिकारी हैं , देने वाला तू ही होता |


अरविन्द तेरे दिमाग में तो कीड़ा है पर तेरे घर वालों के दिमाग में नहीं है, वे दुनिया के सारे लोगों जैसा रहना चाहते हैं | उन्होंने तुझे दुःख उठाके इसलिए नहीं पढाया , अपना सुख छोड़कर तुझे अच्छा वातावरण इसलिए दिया कि तू खुद भी सुखी रहेगा और उन सबको भी आराम देगा | ये सूचना का अधिकार क्या दिमाग ख़राब है तेरा , कोई तेरे अपने घरसे तो कुछ चुरा नहीं रहा अरे सरकार का ही पैसा खा रहा है खाने दे | दीवाना है कि दुसरे के हक के लिए लड़ता है क्या मिलेगा , तेरी तो कोई प्यार भावना घर वालों के लिए है क़ि नहीं | कितने सूचना के तहत अधिकार निकलने वालों को मौत मिली है | पिता का दिल कुछ ज्यादा धड़क जाता है तो माँ का हृदय शायद कुछ रुक जाता यह सोच कर कि उनके लड़के का अंजाम कही ऐसा ही न हो | जिसके खाने का बक्सा घर छुट जाने पर माँ किसी न किसी को स्कूल पहुंचा कर खाना पहुंचती थी क़ि अरविन्द भूखा न रह जाये | आज अरविन्द देश के लिए भूखा है तेरी रोटी में आज वो कुछ नहीं क़ि उसकी भूख मिटे |

अरविन्द इन पचास साठ के अंतर को नहीं पहचान पाए कि समाज किस कदर बदल गया है | आज भरी ट्रेन में बलात्कार होता है अगल बगल लोग बैठे होते हैं या शयन करते रहते हैं | कही कोई सड़क चलते किसी को गोली मार दे तो सारा बाज़ार इस फुर्ती से बंद हो जाता है किसी के मामले में कोई क्यों पड़े | अगर बगल वाले घर में गुंडे मावली लूटमार व् औरतों कि इज्ज़त लुटते हो तो पडोसी धीरे से अपना किवाड़ बंद कर तेज आवाज में टी ० वी० चला देता है | और जब सब कुछ गुजर जाये तो झूठे आंसू बहा कर कह दे कि कुछ पता नहीं चला | जिस जगह लोग धर्म नाम पर पागल व् हिंसक हो उठते हों उन्माद में जाने देते हों और विवेक से केवल अपने फायेदे कि बात सोचते हो |इस जगह स्वराज की कल्पना इस युग में महज सजावटी शब्द हो सकता जिसके कोई अर्थ न हों |

अरविन्द जंतर मंतर पर आठ दस दिन अपने रक्त की शर्करा के ऊपर नीचे होने से अपने जीवन की आहुति रोज़ दे रहे है | यहाँ आज वो जन सैलाब जिसे तमाशा भी कहें नहीं है | हर आदमी जो कुछ फोटो देख सका है जान सकता है कि बीमार आदमी कैसा दीखता है | जिसकी देश पर मर मिटने कि सनक वह भी उस ज़माने जब लोग आत्मा नहीं पुद्गल हो गए हों जब हर चीज़ तमशा और बाज़ार बन गयी हो | कहाँ कोई रंग दिखा पायेगी यह शहादत | जगाया तो उसे जो सोया हो , सोने का अभिनय करके जो आँखे मूंदा हो वह कैसे आँखे खोलेगा | मैं क्यों अपनी मीठी नीद और सुख क्यूँ त्यागूँ जब तक भ्रष्टाचार स्वयं आतंक बनकर मेरे घर को तहस नहस न कर दे | जब मेरे को भ्रष्टाचार अपने अनगिनत रूपों में से किसी एक रूप में जब डसेगा , उस समय मेरा पड़ोस वाला इसी चिंतन के साथ सो जायेगा क्योंकि उसकी बारी कभी नहीं आएगी जैसा मैं सोच करता था |

तेरा वैभव अमर रहे माँ हम दिन चार रहे न रहें ….”
अरविन्द रैली से बोल कर गाड़ी में बैठते ही खाने को कुछ माँगा करता था ! मेरे मज़ाक उड़ने पर उस का कहना था कि शुगर के कारण जल्दी ही कुछ न खा सकूँ तो घबराहट होने लगती है ! आज पाँच दिन हो गए ! कल माँ ने उस के माथे पर हाथ फिराया तो मुझे उस की वो भूख याद आ गयी ! पर हम लड़ेंगे साथी ….
जंतर-मंतर इस वक़्त देश-धर्म की इक ऐसी पुण्य-वेदी है जिस ने उस के दर्शन न किये वो भी क्या जिया ! जय हिंद !

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